मैं आरडी शुक्ला आपको याद दिलाता हूं सन 80 और 90 के बीच में लखनऊ अखबारों का कब्रिस्तान बन गया था नवजीवन नेशनल हेराल्ड कौमी आवाज नवभारत टाइम्स अमृत प्रभात नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका सब बंद हो गए थे हालत ये हो गई थी यहां स्वतंत्र भारत और अंग्रेजी का द पायनियर अखबार बचा था उस समय उपरोक्त सभी अखबारों में एक ही साहब की यूनियन थी उमाशंकर मिश्र जी की और उनकी आदत थी अखबारों में उत्पात मचाने की सभाएं करने की बेवजह बवाल करने की इस उत्पाद और इस बवाल के लिए उनको लोक चंदा देते थे वह किराए पर बुलाए जाते थे यही यही सब हरकत करने के लिए उस समय उत्पाद सबसे पहले नेशनल हेराल्ड नवजीवन में शुरू हुआ क्योंकि वह अखबार आपातकाल लगाए जाने के बाद जनता की नजरों से गिर गया था जनता ने उसके बाद स्वतंत्र भारत और पायनियर अखबार को पसंद करना शुरू किया क्योंकि स्वतंत्र भारत और पायनियर अखबारों में जिनकी यूनियन थी उन्हीं की यूनियन नेशनल हेराल्ड मैं भी थी उमाशंकर मिश्रा जी के गुरु विमल मेहरोत्रा जी नेशनल हरण यूनियन के कर्ताधर्ता थे उस अखबार का जो भी लेखा-जोखा था वह वही चलाते थे यशपाल कपूर जी कांग्रेस के नेता उस अखबार का संचालन करते थे लिहाजा इन उक्त दो बड़े नेताओं ने जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरू किए गए इस अखबार का बंटाधार कर दिया अब वहां पर तरह-तरह से जब संकट शुरू हुआ धरना प्रदर्शन आंदोलन शुरू हुआ कर्मचारी परेशान हुआ सड़क पर आ गया सब बंद हो गया वहां पर भारी संख्या में कर्मचारी थे उनका वेतन बंद होने से त्राहि-त्राहि मची लेकिन वहां नेतागिरी दुनिया हो गई कि आखिर में अखबार ठप हो गया फिर उसके बाद नौबत आई अमृत प्रभात और नादान इंडिया पत्रिका की यह अखबार लखनऊ में आकर बहुत तेजी से प्रगति कर रहा था अचानक यहां भी यूनियन बाजी शुरू हो गई उन दिनों सब काम कंप्यूटर पर तो होता नहीं था इसलिए कर्मचारी ज्यादा होते हैं जैसे जैसे कंप्यूटर आने लगा कर्मचारी छुटने लगे यहां भी नेतागिरी शुरू हो गई माननीय उमाशंकर मिश्रा जी यहां की यूनियन के भी संचालक बन गए यहां भी रोज सभाएं शुरू हो गई धीरे धीरे प्रबंधक परेशान होने लगा और उसने धीरे-धीरे अखबार को समेट दिया उसके बाद बारी आई नवभारत टाइम्स बहुत ही जोर शोर से यहां शुरू हुआ लेकिन यहां भी उमाशंकर मिश्रा जी का पदार्पण हुआ और यूनियन बाजी शुरू हो गई फिर धीरे धीरे धरना प्रदर्शन आंदोलन और सड़क छाप नेतागिरी शुरू हो गई फिर वही हुआ मामला प्रबंधकों के लिए सर दर्द हो गया और आखिर में बंद हो गया फिर सिर्फ बचा तो पायनियर स्वतंत्र भारत वहां की भी स्थिति रोज धरना प्रदर्शन देखते देखते जयपुरिया जैसे सेठ ने उसको अपने हाथों से बेचन आई उचित समझा वह नेतागिरी नहीं झेल पाया और आखिर उसने अखबार को ठाकुर ग्रुप के हाथ बेच दिया था पर ग्रुप भी उसको और वहां की नेतागिरी को नहीं झेल पाया उसने पायनियर को अलग और स्वतंत्र भारत को अलग करके बेच दिया आज ना पाएंगे ठीक से चल पा रहा और ना ही स्वतंत्र भारत अखबार लेकिन अब यूनियन बाजी सारे अखबारों से खत्म है अखबारों का परिणाम देखने के बाद माननीय उमाशंकर मिश्रा जी कुछ जागरण ने अपने हा नहीं घुसने दिया यही कारण है कि जागरण अखबार आज सबसे ज्यादा प्रगति कर गया प्रयास तो बहुत किया कि जागरण में यूनियन बन जाए लेकिन स्वर्गीय नरेंद्र मोहन जी ने यूनियन वालों की एक न चलने दी उसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष किया लेकिन यूनियन के लोगों को अपने दैनिक जागरण में नहीं घुसने दिया उसके लिए उन्होंने हर तरह की तकलीफ सही लेकिन उन्होंने अपने यहां यूनियन नाम की चीज नहीं बनने दी आज देखिए जागरण अखबार सर्वोच्च पर है सबसे ऊपर है देश में जबकि बाकी जो सर्वोच्च पर है वह सब सड़क पर हैं उसका सिर्फ एक मात्र कारण यूनियन बाजी भले यह कहा जाए की यूनियन ना होने की वजह से पत्रकारों का बहुत शोषण हो रहा है कर्मचारियों का बहुत शोषण हो रहा है वह तो ठीक है लेकिन अभी तो देखिए कि जहां यूनियन नहीं है वह तरक्की कर रहे हैं वह कहां पहुंच रहे हैं और जिन्होंने यूनियन बाजी की वह आज मस्ताना भूत हो गए वे अखबार आज कहीं अपना कोई स्थान भी नहीं बना पाए तो आखिर यूनियन को अच्छा कहा जाए क्या जहां यूनियन नहीं है वहां के कर्मचारियों को तनखा नहीं मिल रही है क्या वहां पर कार्य नहीं कर रहे हैं क्या यूनियन के लोग ही वहां हर जगह पैसा दिलाते हैं जहां-जहां दिलाया दिलाया क्या वहां वहां पत्रकार कर्मचारी सड़कों पर नहीं आ गए उनका पूरा बायोडाटा मैं आपको दूंगा अब तो लाखों परिवार ऐसे हो गए हैं कि जो इस यूनियन की बलि चढ़ गए जवानी में विधवा हो गए कहते हैं पता नहीं कितने लोग भूखों मर गए इस यूनियन बाजी के चक्कर में तकलीफें जेली मुकदमे लड़े और आज तक उनको न्याय नहीं मिला मुकदमा पिछले 25 साल से चल रहे हैं लोगों के घरों में चूल्हे नहीं जले खाने को नहीं रहा तो क्या ऐसी यूनियन बाजी बहुत सही थी अगर यूनियन सही थी तो आखिर इतने लोग सड़क पर क्यों आ गए उनको मैं आज तक क्यों नहीं मिला यूनियन और प्रबंधन के बीच में जो दलाली होती रही उसमें सब ख़ाक में मिला दिया और लखनऊ में अखबारों का कब्रिस्तान बना दिया आज वह सारे नेता है मस्त है लेकिन कर्मचारियों और पत्रकार उनकी अगर दशा देखी जाए तो बहुत कष्ट होता है हमें विस्तार से आपको बताऊंगा इन अकबर के कारखानों के भीतर आखिर हुआ क्या पिछले 30 सालों में
जब कब्रिस्तान बन गया लखनऊ अखबारों का