क्राइम रिपोर्टर का दर्द
स्वर्गीय वीरेंद्र सिंह जी के संपादक स्वतंत्र भारत बनने की खबर आग की तरह फैल गई सब खुश थे मैं बहुत दुखी था लगता है अब यहां से बाहर जाना पड़ेगा सब लोग वीरेंद्र सिंह जी को मुबारकबाद दे रहे थे मैं घबराया था धीरे से जाकर और लोगों की तरह उनको मैंने बधाई दी वैसे तो उनके कमरे के सामने से कभी नहीं जाता था कि कहीं कोई दिन दुनिया का मामला पूछ दिया तो मेरी नौकरी उसी दिन चली जाएगी घबराता था लेकिन जब मैं बधाई देने उनको गया तो उन्होंने बधाई स्वीकार करते ही हमको अपने साथ चलने को कहा उस समय उनके साथ तत्कालीन स्वतंत्र भारत के क्राइम रिपोर्टर ताहिर अब्बास साहब थे वीरेंद्र सिंह जी हम लोगों को विधानसभा रोड पर स्थित बर्लिंगटन होटल ले गए मेरे पसीना छूट रहा था बहुत तेज घबरा रहा था कि अब मेरी छुट्टी हुई वीरेन जी ने बर्लिंगटन रेस्टोरेंट में पहुंचते ही कॉपी का आदेश दिया और फिर मेरी तरफ मुखातिब होकर कहां शुक्ला जी अब मैं संपादक हो गया हूं कल से आप क्या करेंगे आप जनरल संपादकीय विभाग में तो आप कुछ कर नहीं पाएंगे लेकिन मैं सोचता हूं कि मै आपके पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए अपना जगत की खबरें लाने के लिए लगाऊं तो आप सफल हो सकते हैं वरना आप पत्रकारिता में कुछ नहीं कर पाएंगे मैं चुप बैठा था उन्होंने मुझे आदेश देते हुए कहा कि ताहिर साहब आपके सीनियर रहेंगे और कल से आप लखनऊ और प्रदेश की अपराधिक घटनाओं की खबरें देने का काम करेंगे मैं अचंभित हो गया मनचाही मुराद मिल गई लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था कि अचानक यह हो क्या गया फिर वहां से कॉफी पीने के बाद जब अपने कार्यालय स्वतंत्र भारत के पहुंचा उसके थोड़ी देर बाद ही मुझे बधाइयां मिलने लगी अपराध संवाददाता नियुक्त होने की धीरे-धीरे मैं भी खुश होने लगा निराशा जाने लगी और फिर धीरे-धीरे यह बात पूरे लखनऊ मैं फैल गई मुझे दूसरे दिन से ही क्राइम रिपोर्टर का काम संभालना था जो पूरी शाम पूरी रात मैं इसी खुशी में डूबा रहा लोग बधाइयां देते रहे बस सुबह का इंतजार कर रहा था रात भर सोया भी नहीं ठीक 10:00 बजते ही मैं विधानसभा रोड स्थित स्वतंत्र भारत कार्यालय पहुंच गया उस दिन खूब सज धज कर गया कार्यालय गेट पर ही हमारे कर्मचारियों की भीड़ लगी थी मैं अचरज में पड़ा कि यह क्या हो गया लोगों को दफ्तर में होना चाहिए था सब बाहर क्या कर रहे हैं जब मैंने मोटरसाइकिल अपने प्रेस गेट पर रोकी लोगों से पूछा कि क्या हुआ तो मुझे पता चला करीब में हुसैनगंज में जॉब पुलिस ने मुठभेड़ में दो बदमाशों को मार दिया बस क्या था मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा चंद कदम दूरी पर मैं तत्काल पहुंचा वहां दीप होटल में लखनऊ के एसपी और चौक कोतवाली के प्रभारी दीनानाथ दुबे नखास चौकी के प्रभारी एस के मिश्रा मूछों पर ताव देते हुए दिखाई दिए हमने जीवन के पहले इस केस की रिपोर्टिंग शुरू की मालूम कुछ था नहीं पुलिस वालों ने बताना शुरू किया कि उन्होंने दीप होटल के पीछे एक घर को घेरा वहां बदमाश छुपे हुए थे दूसरी मंजिल पर जिन्होंने पुलिस पर गोली चलाई जवाब में जब पुलिस ने गोली चलाई तो चौक क्षेत्र के इनामी बदमाश पापे मुस्तफा पुलिस की गोली से मारे गए एक छत पर दूसरा गली में आकर गिरा था मैंने वहां के हालात देखें मुठभेड़ का कुछ मालूम नहीं था वापस दीप होटल आया पुलिस वालों ने खूब खाने-पीने का इंतजाम कर रखा था ज्यादा पत्रकार तो होते नहीं थे दो चार पत्रकारों को पुलिस वाले जिनको वह पहले सेयहां तक मैं खुद नहीं जानता था यह क्या हुआ है कैसे हुआ है जानते थे उनको अपनी अपनी बहादुरी की बखान कर रहे थे मेरा पहला दिन था न पुलिसवाले मुझे जानते थे ना मैं उनकी इस करतूत को जानता था हर किसी तरह फोटो खिंचवा कर कार्यालय पहुंचा अपने सीनियर ताहिर अब्बास जी से मदद लेकर इस मुठभेड़ की खबर बनाई और वह अखबार में छपी मामला कथित मुठभेड़ का था लेकिन जानकारी ना होने की वजह से मामला पुलिस के पक्ष में चला गया इस खूनी मंजर के साथ मेरे क्राइम रिपोर्टिंग की शुरुआत हुई फिर उसके बाद तो मैंने पलट के नहीं देखा और बड़ी-बड़ी मुठभेड़ों बड़े बड़े अपराधियों माफियाओं जिंदगी में नस-नस जानता था विश्वविद्यालय के समय से उनकी पोल पट्टी खोल कर रख दी स्वतंत्र भारत को नंबर एक पर 1985 तक पहुंचा दिया अकेला मैं नहीं पूरे संपादकीय विभाग मैं मेहनत करके एक समय था स्वतंत्र भारत अखबार लखनऊ नहीं प्रदेश नहीं देश में हिंदी का नंबर वन का अखबार बन गया यह समय था वीरेंद्र सिंह जी का वह इतने सच्चे निर्देश और निष्पक्ष संपादक थे कि जिन्होंने स्वतंत्र भारत को स्वतंत्र भारत बना दिया हम लोगों से खूब मेहनत करवाई यहां तक कि कई बार जान पर भी बनी लेकिन चंबल का बीहड़ हो या पूर्वांचल का माधवपुर कांड बस्ती का कर रहना कांड मैंने प्रदेश भर में घूम-घूम कर इन आपराधिक घटनाओं की खोजबीन की और गुनहगारों को सजा दिलवाई यही नहीं माधोपुर कांड में जो मैंने लिखा था उसके हिसाब से 3 पुलिस वालों को फांसी की सजा हुई लखनऊ की माफिया गिरी बृजलाल जैसे एसपी में आकर हमारा साथ किया और यहां की दादागिरी खत्म हुई उसका कारण था कि मैं 11 के बारे में अंदर तक जानता था सो मैंने अखबार में खोल खोल कर सब माफियाओं और अपराधियों के बारे में खुला लिख दिया बृजलाल जैसा एसपी था उसने अपराधियों माफियाओं को तोड़ डाला पुलिस और हमारा तालमेल तब से शुरू हुआ और आज तक बदस्तूर जारी है किन अचानक प्रेस की स्थितियां बदली और तब तक मैं अपराधियों और माफियाओं पर इतना जुल्म डाल चुका था कि उन्होंने हमारे खात्मे की पूरी योजना बना डाली मेरे खिलाफ इतना पैसा रूपया खर्च किया गया कि आखिर में मुझको अपराध संवाददाता के J से हटा दिया गया और मेरी कलम छीन ली गई यह सन उन्नीस सौ 79 की बात अब मैं करता क्या मैं चीफ रिपोर्टर था अब चीफ सब एडिटर बना कर संपादकीय विभाग में बैठा दिया गया इतनी अधिक मैंने खबरें खुलकर लिख दी थी और यूं कहिए कि हमारा संपादक निष्पक्ष था उसने जमकर खबरें छप आई थी तभी हमारा अखबार नंबर वन हुआ और दुश्मनी अपराधी माफियाओं से इस कदर हो गई थी कि वह किसी भी हालत में हम को नष्ट करना चाहते थे इससे पूर्व में इससे पूर्व इससे पूर्व 1984 में मैंने एक हरकत और की थी अपने महानगर क्षेत्र में जितने भी छोटे बच्चों के खराब करने की जगहों जहां पर उनको नशे के सौदागर स्मैक शराब गांजा भांग पिलाते थे उन अड्डों को मैंने जबरन शिवलिंग रखकर मंदिर बनवा दिया ऐसे दर्जनों स्थान है जहां पर मंदिर बनने के बाद नशे के अड्डे खत्म हो गए वह मंदिर तो आज विशाल है जनता वहां सर झुक आती है वह धार्मिक स्थल बन गए मैं धार्मिक नहीं था लेकिन इन नौजवानों के खराब करने की जगह को मंदिर के रूप में बदल देने से काफी नौजवानों की जिंदगी बच गई और उन्हीं नौजवानों से मैंने मंदिर बनवाया मैं तो धर्म की एबीसीडी नहीं जानता था इसकी वजह से भी नशे के सौदागर अपराधी हमसे बहुत नाराज थे उनका धंधा मैंने खराब किया था कुल मिलाकर 1986 और 89 के बीच में मेरे बुरे दिन शुरू हो वीरेन जी भी संपादक नहीं रहे आज तो वेद दुनिया में भी नहीं है उन जैसा ईमानदार निष्पक्ष निर्भीक संपादक मिलना मुश्किल है उनको अमेरिका सरकार ने अपने हां बुलाकर अवार्ड दिया अखबार की सुंदरता को देखकर हमारा स्वतंत्र भारत अखबार प्रदेश में नंबर वन और देश में भी उसका अपना स्थान था चार मशीनों पर छपाई होती थी तब भी पूरी सप्लाई प्रदेश में नहीं कर पाता था स्वतंत्र भारत उस समय हमारा संपादकीय विभाग भी बहुत सुंदर था अब मेरे पास कोई काम नहीं था ज इससे पहले में थोड़ा सा आपको बताना चाहता हूं किस सन 1980 से 85 के बीच में जब मेरी उम्र केवल 30 और 35 वर्ष की थी जो काम मैंने जान हथेली पर लेकर कर डाला उस समय मैं कलम केबल पर लखनऊ नहीं प्रदेश नहीं देश में इतना नाम कमाया कि अगर मैं उस समय चाहता तो शायद पता नहीं कितना धन कमा लेता लेकिन मैं उस समय कोठी की जगह मंदिर बनवा रहा था वह भी जनहित में लोगों के लिए दुश्मनी आले रहा था अपराधियों और माफियाओं से और नेताओं से मैं यह नहीं जानता था किस का परिणाम क्या होगा अखबार को तो बहुत फायदा मिला लेकिन हमको सिर्फ मिली दुश्मनी या जो आज तक चल रही है उस समय मेरा पुलिस और माफियाओं को मेरे नाम का इतना डर हो गया था कि मेरे नाम से कांपते थे मै भी घमंड में चूर हो गया था भविष्य को नहीं देख रहा था मेरा संपादक ईमानदार था इसलिए हम एक पैसा भी किसी का खबर के नाम पर नहीं ले सकते थे और ना ही कभी ऐसा किया अब आते हैं हम फिर वापस वहां जब मैं अब क्राइम रिपोर्टर पद से दूध की मक्खी की तरह निकालकर किनारे कर दिया गया मैं राजनीतिक संवाददाता तो था नहीं ना ही मुझे इन अपराधियों पुलिस वालों और माफियाओं के नेताओं के क्या संबंध थे मैं नहीं जानता था जब मैं क्राइम रिपोर्टर पद से हटाया गया तब मुझको कलम द्वारा लिए गए पगे
समझ में आने शुरू हुए तब तक मैं किसी यूनियन में भी नहीं था केवल पत्रकारों के किसी भी मसले में सबसे आगे रहता था क्योंकि हमसे सब घबराते थे कलम के डर से इसलिए पत्रकारों की लड़ाई में सबसे अग्रणी भूमिका हमारी रहती थी और जिन लोगों को पुलिस और अपराधियों की प्रताड़ना से मैंने बचाया था वह लोग हमेशा हमारे साथ रहते थे और हमारा साथ देते हैं जब मैंने देखा कि अब मैं अकेला रह गया हूं मेरा हथियार कलम भी मेरे पास नहीं है तो मैं अपनी जान कैसे बचाएं अचानक उसी बीच 18 वर्षों के बाद नगर पालिका लखनऊ के चुनाव घोषित हुए मेरी जान उस समय खतरे में थी कलम छीन चुकी थी तो हमने यह देखा कि जिन अपराधियों माफियाओं की खबरें लिख लिख कर उनको मैंने प्रताड़ित किया वह नेताओं से कंधा मिला चुके हैं और नेता उनका साथ दे रहे हैं तो हमने भी महानगर वार्ड से सभासद पद पर नामांकन कर दिया भाग्य बस क्षेत्रीय नहीं लखनऊ की जनता मैं मेरा काम मेरी सच्चाई ईमानदारी निर्भीकता देखी और अखबारों में पड़ी थी उन्होंने जबरदस्त साथ निभाया और मुझे भारी बहुमत से चुनाव जीता फिर क्या था मुझे एक नया जीवनदान मिल गया मैं निर्दलीय था और आश्चर्य की बात देखिए जिन माफियाओं अपराधियों को मैंने चोट पहुंचाई थी उनके घरों से भी बेईमानी के द्वारा एक न एक व्यक्ति चुनाव जीत गया अब मैं उन्हीं अपराधिक गिरोह के बीच में सभासद बनके फंस गया लेकिन मेरी पत्रकारिता जारी रही और मैं सभासद का कार्य करता रहा जब मैंने सारे दलों भाजपा को छोड़कर सभी में उन अपराधियों के गुर्गों को शामिल होते देखा तो माननी है श्री अटल बिहारी वाजपेई जी जो उस समय लखनऊ के सांसद थे उनसे मिला माननीय कलराज मिश्र जो भाजपा के अध्यक्ष थे उनके पास स्वर्गीय लालजी टंडन और डॉक्टर दिनेश शर्मा जी के साथ जाकर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गया उस समय तो भाजपा का वजूद ज्यादा नहीं था लेकिन मुझको जीने का एक एक सहारा मिल गया उसके बावजूद यह अपराधियों माफिया नेता हमारे पीछे पड़े गए बदला लेने के लिए आप सोचें मैं एम कॉम एलएलबी पत्रकार उस पूरे नगरलिका सदन में चुनकर आए सभासदों में सबसे अधिक पढ़ा लिखा होने के बावजूद उपमहापौर इसलिए नहीं बनने दिया गया क्योंकि मैंने अपराधी और माफियाओं के खिलाफ बहुत लेखनी चलाई थी कुछ दल थे जो माफिया भक्त है उन्होंने मुझे किसी भी तरह महापौर नहीं बनने दिया और वहीं पर माफिया के एक घर के व्यक्ति को उपमहापौर मेरी जगह बना दिया गया और मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी गई उस समय किसी भी पत्रकार की किसी नेता ने कोई आवाज नहीं उठाई और मेरे साथ अन्याय हो गया केवल भारतीय जनता पार्टी मुझको उपमहापौर बनाना चाहती थी स्वर्गीय लालजी टंडन अटल जी की भी यही इच्छा थी लेकिन मुलायम सिंह ने नहीं बनने दिया और अपने प्रिय माफिया जिसमें उनको ₹100000 पार्टी फंड में दिया था उसके बहनोई को उपमहापौर बनवा दिया जिसने पहली कक्षा भी नहीं पढ़ा था मैंने इतनी अपनी बेइज्जती महसूस की कि आज तक उस तकलीफ को भुला नहीं पाया हूं
पत्रकारों गैर पत्रकारों कर्म योगी हा करो के आंदोलन में अग्रणी रहा सौ सौ दिन निलंबित रहा लेकिन फिर भी उनकी लड़ाई लड़ता रहा मैं किसी यूनियन में रहा ना किसी गुट में
मित्रों अब मैं आपको सन 80 के बाद से पत्रकारिता की यूनियनों की कहानी सुनाना इसलिए जरूरी समझ रहा हूं की पत्रकारिता की चकाचौंध तो आप बाहर से देखते हैं लेकिन उसके भीतर क्या है यह हम लोगों ने देखा है पिछले 40 वर्षों में पत्रकारिता जगत के भीतर अखबार के कारखानों में चैनलों में जो होता आया है उसकी कहानी बहुत दुखद है तमाम अखबार जिसमें प्रमुख नेशनल हेराल्ड नवजीवन अमृत प्रभात पत्रिका नवभारत टाइम्स द पायनियर स्वतंत्र भारत या तो बंद हो गए या नाम मात्र को छप रहे हैं केवल विज्ञापन के लिए यह लखनऊ अखबारों की कब्रगाह बन गया इसका कारण था पत्रकार संगठन इन पत्रकार संगठनों ने गैर पत्रकारों को मिलाकर ऐसा धंधा चलाया की अखबार के मालिक अखबार बंद कर करके भागने लगे उसका कारण था पहले अखबारों में हजारों हजार आदमी काम करते थे कंप्यूटर नहीं था अखबारों मैं लोहार खाने थे लाइनों मोनू मशीनें थी जो लेट से टाइप बनाते थे अक्षर बनते थे सब काम मैनुअल होता था इसलिए आदमी ज्यादा थे नेशनल हेराल्ड हो नवभारत टाइम्स हो या पायनियर हो सब जगह बड़ी-बड़ी यूनियन थी क्योंकि आदमी काम करता था इसी भीड़ को देखकर तमाम यूनियन के लोग अखबारों में अपनी नेतागिरी चमकाने लगे अखबार के मालिकों को वहां के कर्मचारियों को साथ लेकर डराते धमकाते और फायदा भी करवाते थे और खुद भी अपना मुनाफा कमाते थे इसी में तमाम नेता बन गए पत्रकार तो ज्यादा सामने नहीं आते थे लेकिन गैर पत्रकार सामने आकर नारेबाजी करते थे और हड़ताल तक होती थी अक्षर मालिक डर कर उनकी मांगे मान लेता था धीरे-धीरे हालत यह हो गई यह यूनियन के नेता और पत्रकारों के नेताओं ने मिलकर नेशनल हेराल्ड नवजीवन बंद करवाया स्वतंत्र भारत पायनियर बर्बाद हुआ अमृत प्रभात बंद हुआ पत्रिका बंद हुआ नवभारत टाइम्स बंद हुआ और तमाम छोटे-बड़े अखबार बंद होते रहे यूनियन के डर से कुछ पत्रकार नेताओं और श्रमिकों के नेताओं मैं अखबार के मालि को ब्लैकमेल करना शुरू इन्हीं सब कारणों से परेशान हो कर अखबार बंद होते चले गए मालिक घबराकर कर भाग खड़े हुए रोज हड़ताल रोज धरना प्रदर्शन यह मालिक नहीं सब आए हजारों हजार गैर पत्रकार सड़क पर आ गए पत्रकारों को भी रोजगार के टोटके हो गए अचानक हजारों लोग जवानी में विधवा हो गए और फिर बाद में आ गया कंप्यूटर का समय तमाम गैर पत्रकार पत्रकार की चटनी इसमें हो गई कोई पत्रकार यूनियन इस प्रकार हो रहे छटनी को नहीं रोक पाया और मालिक से मिल मिल कर नेताओं ने खूब खाया हां अगर इन लोगों की नहीं चली तो दैनिक जागरण में जहां शुरू में तो प्रयास किया गया कि वहां भी यूनियन बनाई जाए युद्ध भी हुआ बवाल भी करवाया गया इन्हीं यूनियन और पत्रकारों के नेताओं द्वारा लेकिन वहां एक विनोद शुक्ला जैसा व्यक्ति आया जिसने सबको खदेड़ दिया और वहां आज तक यूनियन का कोई नेता नहीं घुस पाया इसी कारण से आज वह नंबर एक पर है बाकी नंबर 1 से लेकर पुराने सब अखबार बैठ गए यासिर विज्ञापन के लिए छाप रहे हैं तमाम हो जगह पर तनख्वाह मिलती नहीं समय पर पत्रकार कर पत्रकार परेशान है उनकी कोई सुनने वाला नहीं है जो कि यूनियन इतनी बदनाम हो चुकी हैं कि उनकी ओर कोई ध्यान ही नहीं देता मैं पत्रकार नगर पत्रकार ना ही उन लोगों को इस पर विश्वास है कि उनको भला यूनियन करेगी जो यूनियन का एक मुख्य दरवाजा है प्रेस क्लब वहां का माहौल बहुत ही बुरा है चारों ओर गोश्त की दुकान है शराब की दुकान है यह सब पत्रकारों के लिए बहुत बुरा है जो शराब नहीं पीता वह उस प्रेस क्लब में जाकर क्या करें मैं तो आज तक नहीं गया वहां का हाल हर आदमी जानता है पत्रकारिता की प्रतिष्ठा होती है उस प्रतिष्ठा को धूमिल इस कदर कर दिया गया है कि कोई भी उसको सुधारने की कोशिश नहीं कर रहा है और और बिगाड़ा जा रहा है पत्रकारों के चुनाव हो रहे मान्यता समिति के आपस में खूब युद्ध हो रहा है लेकिन पत्रकारों के हित में अगर खड़े होते हैं तो मात्र दो चार आदमी बाकी एक दूसरे की काट में लगे रहते हैं पहले हम लोग किसी भी मुसीबत में कहीं भी कोई पत्रकार होता था गैर पत्रकार होता था सब एक साथ पहुंचते थे उसकी मदद करते थे आंदोलन होता था उसमें भी भाग लेते थे लेकिन जिस तरीके से हम लोगों का उपयोग किया गया और मालिकों को सेट करके इन नेताओं ने पैसा कमाया वह बहुत ही निंदनीय है इन सब का तो मैं चश्मदीद गवाह हूं यही नहीं मैंने तो सौ सौ दिन कर्मचारियों के लिए निलंबन झेला है मेरी पदाव नीति की गई है मैं नीचे गिराया गया कोई संगठन यूनियन नहीं कुछ कर पाई एक बार मैं निकाला जा रहा था हाईकोर्ट ने मेरी मदद की कोई पत्रकार संगठन कोई यूनियन नहीं खड़ा हुआ यह सब इतिहास है सच्चा आज भी मैं पूरा चिट्ठा दे सकता हूं कि हजारों हजार परिवार भूखों मर गए इसी यूनियन बाजी में और अखबारों के बंद होने के चलते जहां यूनियन नहीं है वैसे तो आज कहीं भी नहीं है वह सब संस्था चल रही है बंद हो गई वह जहां यूनियन बाजी होती रही हर जगह हम लोगों का उपयोग किया गया आज हम कुछ कर भी नहीं सकते यह जरूर है कि आप सबको बता सकते हैं किन हरामखोर नेताओं से दूर रहें वह कमाएंगे खाएंगे और सब को बेवकूफ बनाएंगे खूब बड़े-बड़े भाषण देकर पत्रकारों कर पत्रकारों को भड़का कर कई बार दंगे भी कराए लेकिन पत्रकारों को मिला क्या यह सोचने की बात सड़क अगर मैं सभासद ना बन गया होता तो निश्चित तौर पर मुझको भी खत्म कर दिया गया होता यह तो जनता ने बचा लिया
अब आपको बताते हैं हमारे कर्म योगी जोहा कर भाई हैं जो सुबह 2:00 बजे उठकर घर घर अखबार बांटते हैं उनका अपना एक भयंकर दर्द था वह यह था उनको एक अखबार में 25 पैसा कमीशन मिलता था उन्होंने भी धीरे-धीरे इसकी आवाज उठाई लेकिन कोई नहीं सुन रहा था अचानक में एकता पैदा हुई यह सब कार्य अखबार के मालिकों को अच्छा नहीं लगा वह सब एक होकर एक पैसा भी बढ़ाने पर राजी नहीं हो रहे थे हां करो ने अपनी यूनियन बनाकर हड़ताल शुरू की उन्होंने ऐतिहासिक आंदोलन करते हुए 3 महीने तक किसी अखबार को नहीं बांटा कोई पत्रकार नेता गैर पत्रकार नेता उनके इस आंदोलन में हाथ बंटाने नहीं गया उनकी तरफ से बोला उसका कारण था अखबार का मालिक उनसे नाराज हो जाता लेकिन मैं अकेला था पायनियर अखबार के सामने अपने ही स्वतंत्र भारत हो पायनियर और अन्य सभी अखबारों को मैं खुद रोक जला देता था जबकि मुझसे कहा जाता था कि आपकी नौकरी चली जाएगी मैंने कभी नौकरी की परवाह नहीं की अंत मैं मालिक हारे आंकड़ों को ₹1 कमीशन मिलना शुरू हुआ तब आंदोलन खत्म हुआ मुझे डराने वाले कुछ ना कर सके आज होकर मुझे बहुत प्यार देता है मैं उनका नेता नहीं पत्रकार हूं उनका कहना है एकमात्र आप ने साथ दिया लेकिन क्या कोई पत्रकार या यूनियन उनका साथ देने आई इसीलिए वह भी पत्रकारों के आंदोलन में हिस्सा नहीं लेते ठीक इसी प्रकार इन नेताओं ने हम लोगों का शोषण किया हम लोगों को आगे करके हमेशा फायदा उठाया